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भारत का संकट, हल, विश्वनेतृत्व की अहिंसक स्पष्ट दृश्य नीति, सर्वोच्च संकट और विवशता

एक महान अराजनैतिक
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भारत का संकट, हल, विश्वनेतृत्व की अहिंसक स्पष्ट दृश्य नीति, सर्वोच्च संकट और विवशता

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21वीं शदी और भविष्य का समय अपने विराट समस्याओं को लेकर कह रहा है-‘‘आओ विश्व के मानवों आओ, मेरी चुनौती को स्वीकार करो या तो तुम समस्याओं, संकीर्ण विचारधाराओं, अव्यवस्थाओं, अहंकारो से ग्रसित हो आपस में युद्ध कर अपने ही विकास का नाश कर पुनः विकास के लिए संघर्ष करो या तो तुम सभी समस्याओं का हल प्रस्तुत कर मुझे परास्त करो।’’ ऐसे चुनौती पूर्ण समय में विश्व के अन्य देशों के समक्ष कोई चिन्ता का विषय हो या न हो शान्तिदूत अहिंसक तपोभूमि भारत के समक्ष चिन्ता का विषय अवश्य है और सिर्फ वही ऐसी चुनौती को स्वीकार करने में सक्षम भी है। यह इसलिए नहीं कि उसके अन्दर विश्व नेतृत्व, विश्व शान्ति और विश्व शासक बनने की प्रबल इच्छा है। परन्तु इसलिए कि विश्व प्रेम, जीव ही शिव, शिव ही जीव उसका मुख्य आधार है। जिस पर आधारित होकर वह ब्र्रह्माण्डीय रक्षा, विकास, सन्तुलन, स्थिरता, एकता के लिए अहिंसक और शन्ति मार्ग से कत्र्तव्य करते हुये अन्य अपने भाइयों और बहनों के अधिकारों के लिए प्रेम भाव से सेवा और कल्याण करता रहा है। परन्तु उसके बदले भारत को सदा ही अन्य ने उन सिद्धान्तों को उसके व्यक्तिगत विचारधारा से ही जोड़कर देखा परिणामस्वरूप वे अपने अधिकर और कल्याण के मार्ग को भी पहचानने में असमर्थ रहे, बावजुद इसके प्रत्येक वैश्विक संकट की घड़ी मे भारत की ओर ही मुॅह कर उम्मीद को देखते रहते हैं।
ऐसे समय में जब प्रकृति समाहित मानव, पशु, पक्षी यहाॅ तक कि प्रत्येक जीव मानवों के व्यवहार से संत्रस्त हो चुके है, स्वयं भारत भी आन्तरिक और वाह्य दोनों संकटों से चिन्तित, असहाय, कत्र्तव्यों से विमुख और भ्रमित हो गया है। जो भारतीय भाव के विचारक, ज्ञानी बुद्धिजीवी, राजनेता इत्यादि के अन्तिम और पूर्ण उपलब्ध ज्ञान शक्ति का परिचायक ही है। फिर भी भारत निश्ंिचत है क्योकि वह जानता है कि तपोभूति भारत में सत्य-आत्मा का निवास है। वह सत्य-आत्मा खुली आॅखों से देखते हुये ऐसे उचित समय की ही प्रतीक्षा करता है जब वह स्वयं को स्थापित और अस्तित्व के प्रति विश्वास दिलाने के लिए व्यक्त कर सके। इस निश्चिन्तता के कारण ही सर्वत्र देशभक्ति भाव के गीतों, फिल्मों, पौराणिक कथाओं के दृश्य-श्रव्य माध्यमों से उसके स्वागत की तैयारी करता है। और अपने अपार प्रेमभाव से उसे कर्म करते हुये व्यक्त होने पर मजबूर कर देता है। और यह भारत ‘‘हमें चिन्ता नहीं उनकी उन्हें चिन्ता हमारी है, हमारे नाव के रक्षक सुदर्शन चक्र धारी है।’’ कहते हुये अपनी स्थिति और परिस्थिति पर सन्तोष की सांसें लेता है। जिसके सम्बन्ध में महर्षि अरविन्द के दिव्यदृष्टि से निकली वाणी- ‘‘भारत की रचना विधाता ने संयोग के बेतरतीब ईटों से नहीं की है। इसकी योजना किसी चैतन्य शक्ति ने बनाई है। जो इसके विपरीत कार्य करेगा वह मरेगा ही मरेगा।’’ अक्षरशः पूर्ण सत्य है।
यहाॅ हम भारत की आन्तरिक और वाह्य संकट, उसके अन्तिम हल, विश्व नेतृत्व की अहिंसक नीति और उसके पश्चात् उत्पन्न हुये सर्वोच्च और अन्तिम संकट सहित विवशता पर अन्तिम दृष्टि प्रस्तुत कर रहे है जो सत्य रूप में 21वीं शदी और भविष्य के सत्य चेतना आधारित विश्व के लिए भारत की ओर से कर्तव्य तथा अन्य के लिए अधिकार स्वरूप आखिरी रास्ता है।
भारत का वर्तमान और भविष्य का मूल आन्तरिक संकट-कानून, संविधान, राजनैतिक प्रणाली का संकट, अर्थव्यवस्था का संकट, नागरिक समाज का संकट, राष्ट्रीय सुरक्षा का संकट तथा मूल वाह्य संकट- पहचान और विचारधारा का संकट तथा विदेशनीति का संकट है जो देखने में तो आम जनता से जुड़ा हुआ नहीं लगता परन्तु यह संकट आम जनता के उपर पूर्ण रूप से प्रभावी है। आम जनता मूलतः दो विचारों से संचालित है। एक-जो उसके जीवन से सीधे प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा दश-काल बद्ध ज्ञान है। जैसे- व्यक्तिगत शारीरिक, आर्थिक, मानसिक आधारित चिकित्सीय, तकनीकी, विज्ञान, व्यापार, विचार एवम् साहित्य आधारित होकर स्वयं का अपना प्रत्यक्ष जीवकोपार्जन करना। दूसरा-जो उसके जीवन से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हैं जैसे- सार्वजनिक या संयुक्त, शारीरिक, आर्थिक, मानसिक आधारित चिकित्सीय, तकनीकी, ज्ञान, व्यापार, विचार एवम् साहित्य आधारित होकर स्वयं का अपना सहित परिवार, देश, समाज, विश्व का जीवकोपार्जन करता है। ये ही परिवार, समाज, देश, विश्व की नीतियाॅ है। पहले के बहुमत के कारण व्यक्ति व्यक्तिगत अर्थात् भौतिकवाद में स्थित होकर परिवार, समाज, देश, विश्व पर आधारित विचारांे, व्यवस्थाओं और नीतियों की अवनति करता हैं परिणामस्वरूप उपरोक्त संकट सहित स्वयं अपने देश, विश्व के प्रति भक्तिभाव समाप्त कर देता है। जबकि दूसरे के बहुमत के कारण स्वयं अपने जीवकोपार्जन सहित जीवन और संयुक्त जीवन दोनों व्यवस्थित होता है। वर्तमान समय में पहले का पूर्ण बहुमत स्थापित होकर अब दूसरे की बहुमत स्थापित होने की ओर समय चक्र की गति हैं जिसका उदाहरण ही 21वीं सदी और भविष्य के प्रति चिन्ता व्यक्त हो रही है और इसके विपरीत स्थापित बहुमत इस चिन्ता से मुक्त भी होकर स्वयं अपनी सत्ता की चिन्ता में लगा हुआ है। जबकि हमारा सार्थक कर्तव्य देश-काल मुक्त विचारों की और बढ़ते समय चक्र की ओर भी गति प्रदान करना होना चाहिए तभी उपरोक्त संकट से मुक्ति पायी जा सकती है।
भारत के इस आन्तरिक और वाह्य संकट का अन्तिम स्थापना स्तर तक का हल ही अहिंसक, सुरक्षित, एक, स्थिर, विकास, शान्ति और सत्य चेतना युक्त विश्व के निर्माण के लिए विवादमुक्त, दृश्य, सर्वमान्य, सार्वजनिक प्रमाणित विश्वमानक शून्य श्रंृखलाः मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला विश्वमानव द्वारा अविष्कृत सर्वोच्च और अन्तिम आविष्कार है। जो सम्पूर्ण एकता के साथ वर्तमान लोकतन्त्र का धर्म और धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव आधारित है। जो पूर्ण मानव स्वस्थ समाज, स्वस्थ लोेकतन्त्र, स्वस्थ उद्योग तथा स्वस्थ अर्थव्यवस्था की प्राप्ति का अन्तिम रास्ता हैं विश्वमानक-शून्य श्रंृखला की क्रिया द्वारा फल की प्राप्ति जो इसकी उपयोगिता भी है, की प्रक्रिया का मुख्य सिद्धान्त- ‘‘जिस प्रकार परमाणु में इलेक्ट्रानों की संख्या घटा-बढ़ाकर निम्नतम से उच्चतम, सर्वोच्च और अन्तिम तत्वों तक सभी की प्राप्ति की जा सकती हे। उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के मन को उच्चतम, सर्वोच्च और अन्तिम स्थिति तक का ज्ञान अपने प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया के ज्ञान से युक्त होकर क्रिया कर प्राप्त कर सके। विश्वमानक-शून्य श्रंखला के पाॅच शाखाओं में पहली शाखा-विश्वमानक-0ः विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक की उपयोगिता विभिन्न विषयों पर वैचारिक लेखन, रचना, दृश्य-श्रव्य कार्यक्रम जैसे- दूरदर्शन, फिल्म इत्यादि तथा मानव जीवन के लिए उपयोगी साहित्यों की दिशा निर्धारित करता है। दुसरी शाखा-विश्वमानक-00ः विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक की उपयोगिता विभिन्न विषयों और उसके विशेषज्ञों की परिभाषा का अन्तिम व्यक्त परिभाषा का ज्ञान है। तीसरी शाखा- विश्वमानक-000ः सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (स्थूल तथा सूक्ष्म) प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक की उपयोगिता एक ही सिद्धान्त द्वारा अदृश्य और दृश्य जगत के प्रबन्ध को स्पष्ट कर विभिन्न तन्त्रों पर आधारित संविधान निर्माण करने में है तथा सभी संयुक्त मन (पंचायत, राज्य, देश, संयुक्त राष्ट्र संघ एवम् अन्य मध्यस्थ संयुक्त मन) को एक ही सिद्धान्त पर क्रियाकलाप करने और उसकी दिशा निर्धारित करने में है। जिससे प्रत्येक संयुक्त मन की दिशा ब्रह्माण्डीय विकास की दिशा में कर शक्ति का उपयोग एक मुखी किया जा सके। चैथा- विश्वमानक-0000ः मानव प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक की उपयोगिता एक ही सिद्धान्त जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक निर्धारित है, उसी से अदृश्य मानव ( सूक्ष्म शरीर ) तथा दृश्य मानव (स्थूल शरीर) के प्रबन्ध को स्पष्ट करने तथा उसके विभिन्न तन्त्रों को विवाद मुक्त करने में है। तथा सभी व्यक्तिगत मन (व्यक्ति) को एक ही सिद्धान्त जिससे संयुक्त मन का क्रियाकलाप और उसकी दिशा निर्धारित हे, उसी सिद्धान्त से व्यक्ति के क्रियाकलाप करने और उसकी दिशा निर्धारित करने में है। जिससे प्रत्येक मानव के क्रियाकलाप की दिशा, संयुक्त मन के क्रियाकलाप की दिशा से जुड़कर विश्व विकास की दिशा में हो सके। जिससे सम्पूर्ण शक्ति एक मुखी होकर सम्पूर्ण मानव जाति प्राकृतिक संसाधनों और प्राकृतिक क्रियाकलापों से एकता रखते हुये, ब्रह्माण्डीय विकास और उसके रहस्यों को अविष्कृत करने में उपयोग कर सके। यही सम्पूर्ण क्रियाकलापों का मानक ही कर्मज्ञान है। दृश्यकर्मज्ञान हैं पाचवाॅ- विश्वमानक-00000ः उपासना स्थल का विश्वमानक की उपयोगिता मन को उन्हीं सिद्धान्तों पर केन्द्रीभूत करने का स्थल है जो विश्वमानक-000ः और विश्वमानक-0000ः में व्यक्त है।
इस विश्वमानक-शून्य श्रंृखला को भारत देश सहित विश्वव्यापी स्थापना ही भारत का कत्र्तव्य और दायित्व सहित उन सभी सर्वोच्च भावों की प्राप्ति है जिसे अभी तक सामान्यतः संकीर्ण और एक विशेष सम्प्रदाय का विचार समझा जाता रहा है। इसकी स्थापना से भारत स्वयं अपने देश सहित विश्व के सभी देशों के प्रत्येक नागरिक को उसके दिशा और स्थान से ही संयुक्त राष्ट्र संघ तक को एकमुखी कर विश्व विकास की मुख्यधारा से जोड़ सकेगा परिणामस्वरूप संकीर्ण विचारों से देशों को गुलामी देने वाले देशों पर व्यापक विचार-सत्य-सिद्धान्त का आवरण डाला जा सकेगा जो विश्व कल्याण सहित भारत की अदृश्य सार्वभौमिकता का दृश्य सार्वभौमिकता में परिवर्तन का अन्तिम मार्ग है। इसकी विश्व व्यापी स्थापना की नीति ही भारत की सम्पूर्ण विदेश नीति का मुख्य सिद्धान्त है। इसके उपरान्त विदेश नीति के सूक्ष्म नियम स्वतः स्पष्ट हो जायेगें। चूॅकि यह भारतीय भाव द्वारा विश्व प्रबन्ध का अन्तिम जनतन्त्रीय सिद्धान्त की स्थापना का अन्तिम मार्ग है इसलिए भारतीय संसद का इसके स्थापना के प्रति, इसकी उपलब्धता के बावजूद निष्क्रीय रहना स्वयं भारत, आम जनता तथा मानवता के प्रति वे सभी नकारात्मक संज्ञा का व्यक्त रूप होगा जिसे सम्मिलित रूप से असूरी या पशु प्रवृति कहते हैं जिस प्रकार विश्वमानक-शून्य श्रंृखला की शाखायें और पुनः उन शाखाओं से निकली अनन्त शाखायें सम्पूर्ण बह्म्राण्ड के सभी विषयों को अपने बाहों में लेकर उनका सत्य रूप व्यक्त कर देती है उसी प्रकार इसके भारत तथा विश्वव्यापी स्थापना के भी अनेक स्पष्ट मार्ग है और यही इसकी स्थापना की अहिंसक स्पष्ट नीति है। इसके भारत तथा विश्वव्यापी स्थापना के ये मार्ग है।
भारत में इसकी स्थापना के दो मार्ग है, प्रथम- संसद सदस्यों के सर्वसम्मति से संसद द्वारा और द्वितीय आम जनता सहित संगठन द्वारा। प्रथम चूॅकि लोकतन्त्र विचारों को बद्धकर सार्वजनिक सत्य को व्यक्त करने का तन्त्र है और यह सार्वजनिक सत्य ही प्रत्येक मानव अर्थात आम जनता का यथार्थ है। आम जनता का तन्त्र ही लोकतन्त्र है। इसलिए भारतीय संसद जो विश्व में सबसे बड़ा लोकतन्त्र आधारित संसद है, जो लोकतन्त्रिक विश्व संसद का ही अविकसित रूप है, उसे शुद्ध रूप से जुड़े इस सार्वजनिक सत्य विश्वमानक-शून्य श्रृंखला को संसद सदस्यों की सर्वसम्मति से स्थापित कर लोकतन्त्र के परिपक्वता, स्वस्थता, विश्वास और व्यवस्था का अन्तिम माध्यम का परिचय देना चाहिए। इसके बाद ही स्वतन्त्र, स्वराज सहित विश्व के समक्ष यह कहा जा सकता है कि लोकतन्त्र ही विश्व व्यवस्था का सबसे सशक्त तन्त्र है जो जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता द्वारा शासित तन्त्र है। इसमें संसद को जरा भी सन्देह नहीं होना चाहिए कि जो संसद का कत्र्तव्य और दायित्व है उसका आविष्कार एक सामान्य ग्रामवासी ने किया है जो भारत और भारतीय संसद की गरिमा को बढ़ाता ही है। आविष्कार संसद द्वारा हो या किसी और के द्वारा यदि वह उसके कत्र्तव्य और दायित्व को पूर्णता प्रदान करता है तो उसकी स्थापना संसद को सर्वसम्मति से की जानी चाहिए। अन्यथा संसद ही पूर्णरूप से आमजनता द्वारा विरोध का शिकार हो जायेगा। जिन संसद सदस्यों को इस सार्वजनिक सत्य विश्वमानक-शून्य श्रृंखला पर विरोध हो उन्हें मात्र विरोध ही नही बल्कि विरोध का उचित कारण ओर उसके सार्वजनिक सत्य व्यक्त हल के साथ विरोध करना चाहिए। अन्यथा वे स्वयं अपने ही नकारात्मक चरित्र को सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर देंगे, इसका ध्यान उनको रखना चाहिए। इस कार्य में सदस्यों को यह ध्यान देना होगा कि विचारो का परिणाम ही सार्वजनिक सत्य होता है और सत्य के व्यक्त हो जाने पर विचारों का अस्तित्व सदा के लिए समाप्त हो जाता है। संसद द्वारा सर्वम्मति हो जाने पर विश्वमानक-शून्य श्रृंखला राष्ट्रीय ऐजेन्डा हो जायेगी। विश्वमानक-शून्य श्रृंखला राष्ट्रीय एजेन्डा का सत्यरूप है ही परन्तु संविधान निर्देशित संसद में इसका सर्वम्मति होना संवैधानिक रूप से आवश्यक है। राष्ट्रीय ऐजेन्डा के रूप में स्वीकार कर लिये जाने पर स्वयं सरकार को देश में क्रियान्वयन के लिए सर्वप्रथम काल परिवर्तन अर्थात व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य काल से सार्वजनिक प्रमाणित दृश्यकाल की घोषणा देश स्तर से करनी पड़ेगी क्योकि जनता को यह बताना आवश्यक होगा कि वर्तमान समय में अधिकतम व्यक्ति का मन वाह्य विषयों ओर संसाधनों पर केन्द्रित हो गया है। पुनः राष्ट्रीय पुनर्निमाण समिति का गठन कर विश्वमानक-शून्य श्रृंखला को विस्तृत कर विवादमुक्त तन्त्रों पर आधारित भारतीय संविधान को व्यक्त कर (जो भारत के मूल संविधान से मिलकर पूर्ण विश्व संविधान में परिवर्तित हो जायेग) विभिन्न मन्त्रालय और विभागों द्वारा प्रभावी कराना चाहिए। जिसमें सर्वप्रथम भारतीय मानक ब्युरो में विश्वमानक-शून्य श्रृंखला के समकक्ष आई.एस.-शून्य श्रृंखला मानक विकसित कर लेना चाहिए। विश्वमानक-शून्य श्रृंखला के ज्ञान से परिपूर्ण होने के बाद ही संविधान संशोधन सार्थक होगा।
भारत में विश्वमानक-शून्य श्रंृखला की स्थापना का द्वितीय मार्ग आम जनता एवम् संगठनों द्वारा है। आम जनता और सामाजिक संगठनों को जनहित के लिए सर्वाेच्च न्यायालय में जनहित याचिका, राजनीतिक दलों के मानक और संसद के कत्र्तव्य तथा दायित्व के लिए न्यायालय को बाध्य कराना है कि वह संसद तथा राजनीतिक दल अपने वास्तविक स्वरूप के लिए कार्य प्रारम्भ करे तथा मानव मन निर्माण करने के क्रियाकलाप का अपना मानक प्रस्तुत करें। इससे न्यायालय भी संविधानानुसार अपनी गरिमा तथा स्वयं उसको अपने लिए एक दिशा निर्देश स्थापित करने का सिद्धान्त प्राप्त हो जायेगा। व्यापारिक-औद्योगिक समूह को भारतीय मानक ब्यरो में विश्वमानक-शून्य श्रृंखला के समकक्ष आई.एस.- शून्य श्रृंखला मानक विकसित करने के लिए कदम उठाने चाहिए। जिससे उन्हें यह लाभ होगा कि वे अपने संगठन-समूह को अन्तर्राष्ट्रीय गुणवत्ता के साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का मानव संसाधन विकसित करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करेगें। जो उन्हें विश्व बाजार के प्रतिस्पर्धा में सर्वोच्चता दिला सकेगा। यही नहीं उनके अपने आन्तरिक सुरक्षा, गुणवत्ता, प्रबन्धकीय इत्यादि के प्रशिक्षण में व्यय भी कम हो जायेगा क्योकि पूर्ण ज्ञान से युक्त मानव संसाधन होने पर उनकी सूक्ष्म दृष्टि स्वतः ही इन गुणों से युक्त और रचनात्मक हो जायेगी। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का मानव संसाधन निर्माण से लाभ यह होगा कि उत्पादों के उपयोग की मानसिकता के विकास सहित कर्मज्ञान द्वारा आदान-प्रदान में गति आने से उनके उत्पादों के लिए बाजार सदा ही निर्मित होता रहेगा। परिणामस्वरूप ‘मन्दी का दौर’ जैसे समयों से मुक्ति पायी जा सकेगी। जो अर्थव्यवस्था और उसके मूल्य पर भी व्यापक अनुकूल प्रभाव डालेगा। राजनीतिक संगठनों को विश्वमानक-शून्य श्रृंखला की स्थापना के लिए उपरोक्त मार्गो से प्रेरित कर, संसद में प्रश्न उठाकर और आम जनता में अपने सिद्धान्त अर्थात विश्वमानक-शून्य श्रृंखला सहित उसके लाभ के प्रसार से प्रयत्न करना चाहिए। इससे उन्हें लाभ यह होगा कि आम जनता का विश्वास, राष्ट्रीय एकता, स्वयं को लोकप्रियता, राजनैतिक अस्थिरता, देशभक्ति की स्थायी स्थिरता सहित विश्वभतों का निर्माण, सामाजिक परिवर्तन और निर्माण, सम्पूर्ण क्रान्ति इत्यादि जो भी भारत सहित विश्व के हित में सर्वोच्च और अन्तिम है, उस कार्य का ऐतिहासिक श्रेय उन्हें प्राप्त होगा।
भारत द्वारा विश्वमानक-शून्य श्रृंखला के विश्वव्यापी स्थापना के भी दो मार्ग है। प्रथम-भारत सरकार द्वारा, द्वितीय-भारत के किसी एक राजनीतिक दल द्वारा। प्रथम-राष्ट्रीय ऐजेन्डा जो विश्व राजनीति ऐजेन्डा भी है को भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष प्रस्तुत कर अपने पक्ष में अन्य देषों को साथ लेना चाहिए। चूॅकि यह अहिंसक मार्ग से विश्व निर्माण, रक्षा, शान्ति, एकता, विकास, स्थिरता, कल्याण और सेवा के लिए नेतृत्व है इसलिए अन्य देशों के साथ आने में बाधा नहीं आयेगी इससे लाभ यह होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व व्यापार संगठन के अन्तर्गत ट्रिप्स, यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, सी.टी.बी.टी. इत्यादि में संशोधन-पुनर्गठन-भागीदारी के लिए मार्ग आसान हो जायेगा जो सभी देशों की समस्या है। परिणामस्वरूप विश्व शिक्षा प्रणाली विश्व मानकीकरण संगठन, विश्व संविधान एवम् संसोधित-पुर्नगठित संगठनों का जन्म होगा। विश्वमानक-शून्य श्रृंखला का मानक विकसित करने के लिए लोकतन्त्र व्यवस्था पर आधारित अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन में इसके प्रति अन्य देशों से समर्थन प्राप्त कर आसानी से मान्यता प्राप्त किया जा सकता है। और समकक्ष आई0एस0ओ0-शून्य श्रृंखला विकसित की जा सकती है। विश्वमानक-शून्य श्रृंखला की स्थापना के लिए वर्तमान समय तथा भविष्य में और भी उपयुक्त समय भारत के अनुकूल ही है। क्योकि जहाॅ एक ओर उसे अभी सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर करने है, वही दूसरी ओर भारतीय भाव का अहिंसक सत्य-सिद्धान्त विश्वमानक-शून्य श्रृंखला की स्थापना का प्रस्ताव सी0टी0बी0टी0 के पीछे छुपी मानसिकता को आसानी से व्यक्त कर देगा। सी0टी0बी0टी0 दिशाहीन पदार्थ विज्ञान का परिणाम है तो विश्वमानक-शून्य श्रृंखला की स्थापना का प्रस्ताव सी0टी0बी0टी0 जैसी स्थिति ही उत्पन्न न हो उसका सिद्धान्त है। परिणामस्वरूप न चाहते हुये भी विश्व की संकीर्ण मानसिकता आधारित नेतृत्व वाले देश जो स्वयं अपनी जनता को मानसिक गुलाम बनाये हुये है, पर भी भारतीय भाव का सिद्धान्त स्वतः प्रभावी हो जायेगा। क्योंकि विश्व रक्षा के लिए इसकी स्थापना प्रत्येक देशों के लिए अनिवार्य हो जायेगी। विश्व चिंतक देश अैर संयुक्त राष्ट्र संघ इसके लिए विवश भी होगा क्योंकि विश्वमानक-शून्य श्रंृखला का विरोध स्वयं उसकी विश्व चिंतक, विश्व रक्षा, विश्व विकास, विश्व स्थिरता, विश्व शान्ति, विश्व एकता जैसी छवि को पूर्णरूप से ध्वस्त कर देगा। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्वीकृत हो जाने की दिशा में सर्वप्रथम काल परिवर्तन विश्व स्तर से करनी पडे़गी क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को यह बताना आवश्यक होगा कि वर्तमान समय में अधिकतम व्यक्ति का मन वाह्य विषयों अर्थात् संसाधनों पर केन्द्रित हो गया है। उसके फलस्वरूप विश्वमानक-शून्य श्रृंखला की स्थापना अपने विभिन्न संगठनों के माध्यम से करना प्रारम्भ करेगा।
भारत द्वारा विश्वमानक-शून्य श्रंृखला के विश्व व्यापी स्थापना का द्वितीय मार्ग- उपरोक्त सभी नातियों का प्रयोग करते हुये भारत का कोई एक राजनीतिक दल सत्य चेतना आधारित विश्व निर्माण के लिए विश्व राजनीतिक पार्टी संघ (डब्लू.पी.पी.ओ.) का गठन करने के लिए आगे आकर कर सकता हैं जिसमें प्रत्येक देश से एक राजनीतिक पार्टी को सदस्य बनाना चाहिए। जिससे लाभ यह होगा कि डब्लू.पी.पी.ओ. द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ पर दबाव बनाया जा सकेगा और प्रत्येक देश अपने देश की जनता का सर्वोच्च कल्याण कर अपने देश में दल की सर्वोच्चता स्थापित कर सकेगी। भारतीय राजनीतिक दल को भारत के समस्त सर्वोच्च और अन्तिम कार्य करने का श्रेय प्राप्त होगा।
सामाजिक परिवर्तन, निर्माण, नैतिक उत्थान और सम्पूर्ण एकता की प्राप्ति एक लम्बी अवधि की प्रक्रिया है। 21वीं सदी और भविष्य की आवश्यकता को देखते हुये उसका बीज अभी ही समाज में बोना होगा। जो आवश्यकता और विवशता भी बन चुकी हैं। विश्वमानक-शून्य श्रृंखला उसी का बीज हैं। जिसकी स्थापना के लिए भारत सहित अन्य देशों के आम जनता, संगठन और सरकार को शीघ्रताशीघ्र ऐसा उसी भाॅति करना चाहिए जैसे माता-पिता अपने बच्चे को समायानुसार आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराते है। ऐसा इसलिए भी करना चाहिए क्योंकि वर्तमान समय में नेतृत्वकत्र्ताओं, लोकतन्त्र, सरकार और भविष्य के प्रति जिस प्रकार अविश्वास बढ़ रहा है। उसे विश्वास में परिवर्तित करने का प्रथम और अन्तिम मार्ग यही है। उन्हें यथाशीघ्र इसकी स्थापना के लिए जुट जाना चाहिए क्योंकि वर्तमान नेतृत्वकत्र्ता, लोकतन्त्र, सरकार और जनता चाहे जैसे भी हो परन्तु भविष्य के नेतृत्वकत्र्ता, लोकतन्त्र, सरकार और जनता की पूर्ण स्वस्थता के कार्य का विश्व ऐतिहासिक श्रेय तो उन्हें कम से कम प्राप्त हो जायेगा। और यही हृदय परिवर्तन, आत्मप्रकाश, सत्यपक्ष, ईश्वरीय शरण में आना इत्यादि कहा जाता है।
प्रत्येक सुख के साथ दुःख साया की भाॅति लगा रहता है। यदि भारत और विश्व के समक्ष विश्वमानक-शून्य श्रृंखला के आविष्कार का सर्वोच्च और अन्तिम सुख है तो ठीक उतना व्यापक सर्वोच्च और अन्तिम दुःख भी है। कर्मशील युवा विश्मानव का वर्तमान और विवादमुक्त सत्य-विचार-शक्ति: सत्य-सिद्धान्त से युक्त होना ही भारत तथा विश्व के समक्ष सर्वोच्च संकट है। सम्पूर्ण विश्व कैसे एक भारतीय युवा के सत्य-विचार को अपने उपर प्रभावी होने देगा? भले ही यह सम्पूर्ण विश्व के कल्याण का एकमेव, सर्वोच्च और अन्तिम रास्ता हो। भले ही उस युवा का उद्देश्य मात्र इतना हो कि प्रत्येक विषय, पद, व्यक्ति, संगठन और देश अपने उद्देश्य को पूर्णरूप से अपने मार्ग से ही प्राप्त कर ले। और भले ही वह व्यक्ति से विश्व तक की आत्मा की आवाज ही क्यों न हो?
जब दृश्य सार्वजनिक सत्य व्यक्त होता है, जो मानव समाज में सिर्फ एक और अन्तिम बार ही व्यक्त होता है तब सम्पूर्ण संकीर्ण विचार और उससे युक्त अहंकार पर स्पष्ट आघात होता है परिणामस्वरूप अव्यक्त संकीर्ण विचार और अहंकार ही उसके धारणकत्र्ता के समक्ष संकट रूप में व्यक्त होता है परन्तु वे उसे न देखकर सत्य-विचार को ही संकट समझने लगते हैं। व्यक्ति से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक के अपने-अपने संकीर्ण विचार है जो सत्य-विचार के व्यक्त होने से इस प्रकार व्यक्त होंगे। चुॅकि विश्वमानक-शून्य श्रृंखला ही संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्पूर्ण उद्देश्यों को पूर्ण करने का प्रथम और अन्तिम मार्ग है इसलिए उसके द्वारा इसका स्वागत होगा परन्तु उसके विशेषाधिकार प्राप्त देश (वीटो पावर) और संकीर्ण विचारों पर आधारित देश इसका विरोध बिना किसी उचित कारण और समाधान के कर सकते है। यह उनकी अपनी शाक्ति का दुरूपयोग तथा अपने देश की जनता और विश्व के भाविष्य को अशान्त करने का ही रूप ले सकता है। परिणामस्वरूप भारत की शान्ति और अहिंसक छवि विश्व के समक्ष स्पष्टरूप से स्थापित होगी। भारत के सामने यह संकट उसके वर्तमान संस्कृति-भूतकाल में हो चुके महापुरूषों के नाम पर झण्डे, डण्डे, शोषण, अत्याचार, आन्दोलन, जीवकोपार्जन, युवाओं को महत्व न देना, वर्तमान क्रियाकलापों पर आधारित होकर एक दूसरे पर कटाक्ष करना इत्यादि है न कि उन महापुरूषों के विचारों को परिष्कृत कर वर्तमान एवम् भविष्य के योग्य बनाना तथा युवाओं को अपना भविष्य समझकर कार्य करना है। भारतीय संसद के समक्ष संकट का कारण वर्तमान और भूतकाल पर बहस करना और भविष्य के आवश्यक मुद्दों को उठाकर जनता पर छोड़ देना है। प्राच्य आधारित धर्मक्षेत्र पर संकट का कारण अयोग्यता, अपूर्णता और आडम्बर युक्त स्वघोषित ईश्वर, अवतार और आचार्य है। पाश्चात्य आधारित राज्य क्षेत्र पर संकट का कारण नेताओं और उनके दलों का स्वार्थमय होकर राजनीति करना तथा भूतकाल के महापुरूषों, क्रान्तिकारियों, धर्मज्ञों के नामों को भुनाना, अन्य दलों का एक दृष्टि पर कटाक्ष करना है। अदृश्य आध्यात्म विज्ञान और दृश्य पदार्थ विज्ञान के समक्ष संकट उनका दिशाहीन होना है। प्रबन्ध-नीति-विचार के समक्ष संकट उनमें एकता का न होना है। समाज क्षेत्र के समक्ष संकट उनका आपस में समभाव का न होना है। सम्प्रदाय-संस्कृति-जाति के समक्ष संकट आपस में एक दूसरे के ऊपर अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करना है। प्रौढ़-वृद्ध के समक्ष संकट वे जो न कर सके, उसका किसी से उम्मीद न करना और वे जो कर सके है। उससे अधिक कर पाने की किसी से उम्मीद न करना है। युवा शक्ति के समक्ष संकट-दिशा-विहीन, लक्ष्य-विहीन, दिग्भ्रमित, असंगठित, भौतिकता और स्वंय के निर्णित मार्ग को ही सम्पूर्ण समझना है। आम जनता के समक्ष संकट-ज्ञान ही समस्त दुःखों का नाशकर्ता है पर विश्वास न करना है। शरीर को ही प्राथमिकता देने वालों के समक्ष संकट उनका शारीरिक बल से ही संसार को झुका देने का भ्रम है। ईसाई मिशनरीयों का संकट-उनका अंग्रेजी प्रसार से ईसाईकरण करने का भ्रम है।
उपरोक्त व्यापक संकट सिर्फ मानसिक है। सिर्फ अपने मन को बदल देने से सबको अपने ही रास्ते से उसका लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। यही मूल संकट है कि व्यक्ति अपनी इच्छा भी नहीं बदल सकते जिससे न तो उनका शारीरिक, न ही आर्थिक क्षति ही सम्भव है। परन्तु यह विश्व की विवशता है कि वह विवश होकर प्राकृतिक बल या संयुक्त मन बल से वह एकत्व की ओर ही जा रहा है। इसलिए इसकी स्थापना तो निश्चित है। परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व का मानसिक वध भी सुनिश्चित है। चाहे वह वर्तमान में हो या भविष्य में। चूंकि यह संकट वैचारिक है। वैयक्तिक नहीं इसलिए घातक अस्त्रों से मुक्त है बल्कि यह घातक अस्त्रों को ही समाप्त कर देने में सक्षम है। इस प्रकार विश्वमानव का शरीर संकट नहीं है। बल्कि उनकें द्वारा अविष्कृत, अनियन्त्रित, अपरिवर्तनीय, असंग्रहणीय, समस्त सर्वोच्च और अन्तिम व्यापकता से युक्त अन्तिम विचारो का चक्र-सुदर्शन चक्र और पशु प्रवृत्तियों का नाश करने वाला सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का अस्त्र- पशुपास्त्र है जिसका नब्बे प्रतिशत स्थापना संयुक्त मन द्वारा कर्म करते करते ज्ञान की ओर बढ़ने से हो ही चुकी है। शेष दस प्रतिशत ही उसका सत्य-शिव और सुन्दर है। जिसकी स्थापना के उपरान्त ससीम जीवात्मा असीम विश्व में तथा असीम विश्व ससीम जीवात्मा में तथा ससीम जीवात्मा असीम परमात्मा में, निराकार साकार में, साकार निराकार में तथा आत्मा परमात्मा मंे, परमात्मा आत्मा में एकाकार होकर समस्त विश्व प्रेममय और कर्ममय होकर धरती पर स्वर्ग निर्माण में एकजुट हो एक ही आवाज में कहेगा-‘‘वाहे गुरू की फतह।

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